लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

243 पाठक हैं

प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

उद्धारका सरल उपाय-शरणागति

आप लोग रुपयोंके तत्वको समझ गये। इसी तरह यदि परमात्माके तत्त्वको समझ जाते तो बेड़ा पार है। हमलोगोंके तो रात-दिन वही संसार प्रकट रहता है।

अपने पास जो कुछ है, सबको परमात्माके काममें लगा दे तो वह विश्वजित् यज्ञ होता है, यह बहुत मूल्यवान् यज्ञ है। हमें तो विश्वजित् यज्ञ करना चाहिये, किन्तु हमारेसे कुटुम्बजित् यज्ञ भी नहीं हो पाता। प्राय: भाई लोग यही सोचते रहते हैं कि रुपया कैसे मिले, रुपया कैसे मिले। भगवान्के लिये भजन उसी प्रकार करना चाहिये जैसे लोभी आदमी रुपयोंका भजन करता है। कैसी मूर्खताकी बात है कि रुपये-जितना दर्जा भी भगवान्को नहीं देते हैं। संसारमें एक भगवान्को छोड़कर रुपयेसे मकान, स्त्री, लड़का, लड़की चाहे सो मिल सकता है, एक भगवान् रुपयेसे नहीं मिलते तथा भगवान्के भक्त भी नहीं मिलते। जो रुपयेसे मिलता है वह भगवान्का भत नहीं है। अपनी दृष्टिमें रुपया है, महात्माकी दृष्टिमें नहीं है, रुपया पत्थरके समान है। व्यक्ति रुपयोंसे फूला-फूला फिरता है। जितने रुपये हैं, उसके हिसाबसे चाहिये सो खरीद सकता है, परन्तु ईश्वर और महात्मा रुपयोंसे नहीं मिलते। ईश्वर और महात्माको खरीदनेके लिये श्रद्धा और प्रेम चाहिये। भगवान्पर विश्वास हो जाय तो सब कुछ मिल सकता है। भगवान्की वस्तु तो उसके अन्तर्गत आ गयी।

सबसे सरल, सुगम उपाय ईश्वरके आश्रित होना है। ईश्वरके आश्रित होनेपर सहज ही उद्धार हो सकता है। सभी जातिके लोगोंका उद्धार हो सकता है। भगवान्ने एक सरल रास्ता खोल दिया, शरणका एक बड़ा क्षेत्र खोल दिया। भगवान् कहते हैं-

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शगूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।
(गीता ९।३२)

हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि—चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरी शरण होकर परमगतिको ही प्राप्त होते हैं। बहुत सरलतापूर्वक ईश्वरका भरोसा रखना चाहिये। ईश्वरके भरोसेपर ऐसा बल आ जाता है कि व्यक्ति निर्भय हो जाता है। जिसमें भय दीखता है वह ईश्वर पर निर्भर नहीं है। जो ईश्वरके भरोसेपर रहता है उसके बलका ठिकाना नहीं रहता। हमलोगोंको सहायता देनेवाले भगवान् हैं। उन भगवान्का आश्रय लेकर उत्साह, बल, प्रेम आना चाहिये। कोई भी एक आदमी उत्साह दिखा देता है। तो हम उसका वर्णन नहीं कर सकते। हमलोगोंको परमेश्वरका आश्रय लेकर काम करना चाहिये। भगवान्की प्रतिज्ञा है कि जो मेरा आश्रय ले लेता है उसका में कभी त्याग नहीं करता।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।
यच्छेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
(गीता २।७)

इसलिये कायरतारूप दोषसे उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्मके विषयमें मोहितचित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये।

भगवान् हम सबको आश्वासन देते हैं, भरोसा देते हैं हमलोगोंके मस्तकपर हाथ रखते हैं, उसे हटाना नहीं चाहिये। जब हमारे मस्तकपर भगवान्का हाथ है तो फिर क्या चिन्ता है। राजा जनककी सभामें लक्ष्मण कह रहे हैं कि हे जड़ जनक !

मैं इस धनुषको कमलकी डण्डीके समान तोड़ सकता हूँ-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताय बल नाथ। केवल भगवान्का आश्रय है। उस बलसे सब कुछ कर सकते हैं।

जिसको भगवान्पर भरोसा है उसके साधनमें कभी कमी नहीं आ सकती। जिन लोगोंके साधनमें ढिलाई आ रही है, संसारमें मारे-मारे फिर रहे हैं, ईश्वरपर भरोसा हो जाय तो उनकी कायापलट हो सकती है। किसी जगह युद्ध हो रहा हो, उनमें कोई बड़े शक्तिशालीका आश्रय ले लेता है तो निर्भय हो जाता है। जैसे सेनाके बलपर देशका राजा निर्भय रहता है एवं प्रजा राजाके कारण निर्भय रहती है।

कोई बलवान् उन्हें दबानेवाला भी मिल सकता है, परन्तु परमेश्वरको, उनके दासको, उनके दासानुदासको दबाने की किसी में शक्ति नहीं है। उसके काम, क्रोधादि सब एक क्षणमें नष्ट हो जाते हैं।

जब एक छोटा-सा राजा ही हमें आश्रय दे देता है तो हम निर्भय हो जाते हैं, फिर वह परमात्मा तो अनन्त बलशाली है।

कमसे कम जो पुरुष अपनी आत्माका आश्रय ले लेता है, उसका भी कार्य सिद्ध हो सकता है। अपने साधनका भरोसा भी ऐसा जबरदस्त है कि मायाके किलेको तोड़कर चला जाता है, फिर परमेश्वरका आश्रय लेनेवाला पार कर जाय इसमें आश्चर्य ही क्या है।

भगवान् कहते हैं-

दैवी होषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
(गीता ७।१४)

क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं वे इस मायाको उल्लङ्कन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।

सत्, रज, तम तीनों मेरी माया है। जो किसी भी मार्गको जाननेवाले नहीं हैं, वे पुरुष भी जाननेवाले महापुरुषोंके सुननेके परायण होकर संसार-सागरसे पार हो जाते हैं। जिसके परमात्माका आश्रय है भारी-से-भारी मायाकी सेना भी उसका मुकाबला नहीं कर सकती। तुलसीदासजी कहते हैं-

खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पावन कोई।।
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें।।

जिसके हृदयमें भगवान्की भक्तिरूपी मणि वास करती है काम, क्रोधादि मायाकी सेना उसके पास नहीं आ सकती। शत्रु मित्र हो जाते हैं। भगवान्की शरणागति ऐसी ही है।

भगवान् के दासानुदास के आश्रित होने से मनुष्य का उद्धार हो जाता है, फिर परमात्माका आश्रय लेकर उद्धार हो जाय उसकी तो बात ही क्या है ?

हमारे प्रभु हमारे साथ रहकर अपने भक्तपर किसी प्रकारकी आपत्ति आती है तो रक्षा करते हैं। जिस समय रावणने विभीषणपर अपने पर ले लिया। विभीषणको रावणकी लात पड़ी, वह रोता हुआ भगवान्की शरण आया तथा बोला-मैं रावणका भाई हूँ शरण आया हूँ। भगवान् कहते हैं मेरे स्वभावका दोष है जो कोई कह देता है कि मैं तुम्हारा हूँ, मैं उसका त्याग नहीं कर सकता। हनुमान्जीसे बोले-ले आओ। रावणकी लात खानेवाला निर्भय हो गया तो फिर काम, क्रोध क्या रावणसे भी बलवान् हैं। भगवान्की ओरसे घोषणा हो रही है कि चले आओ। हमलोगोंको मौका मिला है। मुहूर्त नहीं दिखाना है, अभी भर्ती हो जाना चाहिये।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book